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Saturday, November 17, 2012

वैश्य कौन, ब्राह्मण कौन, क्षत्रिय कौन......

आज के युग में वैश्य, ब्राहमण, क्षत्रिय आदि अपना कर्म भूल गए हैं. हर कोई अपनी अपनी जाति - वर्ण में उलझ कर रह गया हैं. हर कोई अपने आप को श्रेष्ठ बता रहा हैं. पर हम लोग भूल गए की हम क्या है, क्या हो गए हैं. और क्या थे. 

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में सभी वर्णों की अच्छी व्याख्या दी हैं. 

श्री भगवान कहते हैं, हे परंतप ! ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्रो के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गए हैं. (भागवद गीता, अध्याय १८, श्लोक ४१)

ब्राह्मण के कर्म 

अंतःकरण का निग्रह करना; इन्द्रियों का दमन करना; धर्मपालन के लिए कष्ट सहना; बाहर भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय, और शरीर को सरल रखना; वेद शास्त्र,  ईश्वर, और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद - शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन करना; और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना - ये सब के सब ही एक ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं.(भागवद गीता, अध्याय १८, श्लोक ४२)

क्या इनमे से कोई भी कर्म आज कल के तथाकथित ब्राह्मण करते है. यदि नहीं करते है तो वे ब्राहमण कहलाने के अधिकारी नहीं हैं.

क्षत्रिय के कर्म 

देश - धर्म की रक्षा करना, दुर्बल, असहाय की रक्षा करना, शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता, और युद्ध में ना भागना, दान देना, और स्वामी भाव  - ये सब के सब ही एक क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं. जो इनका पालन नहीं करता वह क्षत्रिय नहीं हैं.(भागवद गीता, अध्याय १८, श्लोक ४३)

वैश्य के कर्म 

खेती, गोंऊ पालन, और क्रय - विक्रय रूप सत्य व्यवहार, वस्तुओ के खरीदने व बेचने में सद्व्यवहार, सही तौलना, अधिक दाम न लेना, झूठ, कपट, चोरी आदि का व्यवहार न करना, धर्म का पालन करना, दान करना, विक्रय से हुए लाभ को कुछ प्रतिशत समाज - धर्म के लिए, कुछ अपने माता पिता के लिए, और कुछ अपने  लिए रखना, यही वैश्य का धर्म हैं. जो इन सब नियमों का पालन नहीं करता वह वैश्य नहीं हैं. (भागवद गीता, अध्याय १८, श्लोक ४४)

भगवान श्री कृष्ण के अनुसार बनाए गए नियमों का यदि सभी वर्ण ठीक तरह से पालन करे तो हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया, व ताकतवर बन सकता हैं. और हिंदू धर्म दुनिया में सबसे बड़ी ताकत बन सकता हैं. 

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