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Sunday, September 9, 2012

राष्ट्रवाद की पहचान – हिन्दुत्व-HINDUTVA


आदि काल से मानव जहाँ पैदा होता था वही जन्म भूमि जीवन भर के लिये उस की पहचान बन जाती थी तथा माता पिता का समुदाय उस का जन्मजात धर्म बन जाता था। यदि मानव समुदाय ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे तो उन की पहचान साथ जाती थी किन्तु नये प्रदेश में या तो ‘अक्रान्ता’ कहलाते थे या ‘शरणार्थी’। अक्रान्ता नये स्थान पर स्थानीय परमपराओं को नष्ट कर के अपनी परमपराओं को लागू करते थे। शरणार्थियों को विवश हो कर अपनी परम्परायें छोड कर नये स्थान की परम्पराओं को अपनाना पडता था। कालान्तर मानव समुदायों ने धरती पर अपना अधिकार घोषित कर के उस स्थान को अपना इलाका, खण्ड या देश कहना आरम्भ कर दिया और धर्म, स्थान, नस्लों, जातियों, तथा व्यवसाय के आधार से मानवों की पहचान होने लगी।
सभ्यताओं का संघर्ष
भारत में भी कई आक्रान्ता आये किन्तु उन्हों ने भारत के स्थानीय रीति रिवाज अपना लिये थे और भारत वासियों की पहचान को अपना कर इसी धरती से घुल मिल गये। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम भी इस देश में अक्रान्ता बन कर आये परन्तु स्थानीय सभ्यता के साथ मिलने के बजाये उन्हों ने स्थानीय सभ्यता की सभी पहचानों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया जिस कारण मुसलमानों का स्थानीय लोगों के साथ स्दैव वैर विरोध ही चलता रहा। इस तथ्य के कभी कभार अपवाद हुये भी तो वह आटे में नमक के बराबर ही थे। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, धार्मिक ऐकता होते हुये भी मुस्लिम आपस में नस्लों, परिवारों तथा खान्दानों की पहचान के आधार पर भी लडते रहेते थे। उन की आपसी प्रतिस्पर्धा में जो ऐक लक्ष्य समान था वह था धर्म के नाम पर इस्लामी भाईचारा जिस का उद्देश स्थानीय हिन्दू धर्म और परम्पराओं का विनाश करना था। उन्हों ने भारत को अधिकृत तो किया किन्तु भारत की स्थानीय सभ्यता को अपनाया नहीं। इस वजह से भारत में उन की पहचान आक्रान्ताओं जैसी ही आज तक रही है।
धर्म निर्पेक्षता का ढोंग
मुसलमानों के पश्चात योरुपवासियों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। उन के मुख्य प्रतिस्पर्धी भी ईसाई थे। अतः उपनिवेश की नीति को सफल बनाने के लिये उन्हों ने मानवी पहचान के लिये ऐक नई परिभाषा का निर्माण किया जिसे आजकल ‘राष्ट्रीयता’ कहा जाता है। इसाई अपनी अपनी पहचान देश के आधार पर करते थे। अंग्रेज़ अपने आप को ईसाई कहने के बजाय अपने आप को ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ या ‘किंग आफ इंगलैण्ड ’ का वफादार सेवक कहना अधिक पसंद करते थे। नस्ल के आधार पर वह अपने आप को ‘ऐंगलो सैख्सन’ भी नहीं कहते थे।
भारत पर अपने अतिक्रमण को ‘न्यायोचित’ करने के लिये उन्हों ने आर्य जाति के भारत पदार्पण की मनघडन्त कहानी को भी बढ चढ कर फैलाया ताकि वह स्थानीय भारत वासियों को बता सकें कि अगर आर्य जाति के लोग बाहर से आकर भारत पर अपना अधिकार जमा सकते थे तो फिर ब्रिटिश वैसा क्यों नहीं कर सकते। उन का कथन था कि सोने की चिडिया भारत किसी की मिलकीयत नहीं थी। हर कोई चिडिया के पंख नोच सकता था। सभी लुटेरों के अधिकार भी स्थानीय लोगों के समान ही थे। इसाई आक्रान्ता ऐसा ही कुछ अमेरिका आदि देशों में भी कर रहे थे। इसी मिथ्यात्मिक प्रचार का परिणाम भारत के बटवारे के रूप में निकला और 1947 के बाद अभी भी धर्म निरर्पेक्ष्ता की आड में प्रचार किया गया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं था बल्कि जातियों और छोटी छोटी रियासतों में बटा हु्आ इलाका था जिसे केवल अंग्रेजों नें ‘इण्डिया’ की पहचान दे कर ऐक सूत्र में बाँधा और देश कहलाने लायक बनाया।
राष्ट्रीयता के माप दण्ड
पाश्चात्य जगत के आधुनिक राजनीति शास्त्री किसी देश के वासियों की राष्ट्रीयता को जिन तथ्यों के आधार से आँकते हैं अगर उन्हीं के मापदण्डों को हम भी आधार मान लें तो भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण स्पष्ट उजागर हो जाते है। उन के मापदण्डों के अनुसार मानवी राष्ट्रीयता का आंकलन इस आधार पर किया जाता है यदिः-
  1. उस देश की जन संख्या किसी स्पष्ट और निर्धारित भू खण्ड में निवास करती हो।
  2. जिन की भाषा तथा साहित्य में समानता हो।
  3. जिन के रीति रिवाजों में समानता हो । 
  4. जिन की ‘उचित–अनुचित’ के व्यवहारिक निर्णयों के बारे में समान विचारधारा हो।    
उपरोक्त मापदण्डों के आधार से भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण इस प्रकार स्पष्ट हैं-
प्रथम आधार – स्पष्ट और निर्धारित भूगोलिक आवास
आधुनिक भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और म्यनमार को संयुक्त कर के देखें तो विश्व में केवल प्राचीन भारत ही ऐक मात्र क्षेत्र है जिस के ऐक तरफ दुर्गम पर्वत श्रंखला और तीन तरफ महासागर उसे ऐक विशाल दुर्ग की तरह सुरक्षा प्रदान कर रहै हैँ। भारत को प्रकृति ने स्पष्ट तौर से भूगौलिक सीमाओं से बाँधा है तथा इस तथ्य का कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। विष्णु पुराण में भारत की सीमाओं के साथ साथ वहाँ के निवासियों की पहचान के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया हैः-  
            उतरं यत् समुद्रस्य हिमेद्रश्चैव दक्षिण्म , वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति
            (साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ जो देश है वहाँ के निवासी भारतीय हैं।)
‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार भारत की पहचान इस प्रकार हैः-
हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात – हिमालय से ले कर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक का देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
मुस्लमानों ने ‘हिन्दुस्थान’ शब्द का अपभ्रंश ‘हिन्दुस्तान’ कर दिया था।

रामायण का कथानक समस्त पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिणी पठार से होता हुआ रामेश्वरम और लंका तक फैला हुआ है। महाभारत का कथानक भी उसी प्रकार भारत के चारों कोनो तक फैला हुआ है। इस भू खण्ड में रहने वाले सभी हिन्दू थे यहाँ तक कि लंकाधिपति रावण भी ब्राह्मण था और त्रिमूर्ति शक्ति शिव का पुजारी था। वह वेदों का ज्ञाता था और यज्ञ भी करता था।
दिूतीय आधार – भाषा और साहित्य में समानता
भारत की सभी भाषायों की जननी संस्कृत हैं जो आदि काल से ग्यारहवीं शताब्दी तक लगातार भारत की साहित्यिक तथा सभी प्रान्तों को ऐक सूत्र में बाँधे रखने के माध्यम से भारत की राष्ट्रभाषा भी रही है। आज भी संस्कृत भाषा ऐक सजीव भाषा है। कई दर्जन पत्र पत्रिकायें आज भी संस्कृत में प्रकाशित होती हैं। अखिल भारतीय रेडियो माध्यम से समाचारों का प्रसारण भी संस्कृत में होता है। चलचित्रों तथा दूरदर्शन पर संस्कृत में फिल्में भी दिखायी जाती हैं। तीन हजार से अधिक जन संख्या वाला ऐक भारतीय गाँव आज भी केवल संस्कृत भाषा में ही दैनिक आदान प्रदान करता है। भारत के कई बुद्धिजीवी परिवारों की भाषा आज भी संस्कृत है। केवल उदाहरण स्वरूप संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र आज भी प्रत्येक हिन्दू से सुना जाता है जोकि संस्कृत की चिरंजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, धर्म शास्त्रों, रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत के कोने कोने में है।   
तृतीय आधार – समान रीति रिवाज
निम्नलिखित तथ्य भारत की राष्ट्रीय ऐकता को दर्शाने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं -
  1. समस्त भारत के हिन्दू परिवारों में जब भी कोई रीति रिवाज किये जाते हैं तो उन में पढे जाने वाले संस्कृत के मन्त्रों में गंगा यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, तथा सिन्धु नदियों का नाम लिया जाता है जो भारत की विशालता और ऐकता का प्रमाण हैं।
  2. यातायात के सीमित साधनों के बावजूद भी हिन्दू भारत के चारों कोनों में स्थित तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते रहै हैं जिन में मथुरा, अयोध्या, पुरी, सोमनाथ, कामाक्षी, इन्दौर, उज्जैन, मीनाक्षीपुरम, और रामेश्वरम के मन्दिर मुख्य हैं।
  3. विपरीत परिस्थितियों और मौसम के बावजूद भी हिन्दू अमरनाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ, कैलास-मानसरोवर, वैश्णो देवी तथा राम सेतु जैसे दुर्गम  तीर्थ स्थलों की यात्रा निष्ठा पूर्वक स्वेच्छा से कर के निजि जीवन की अभिलाषा की पूर्ति करते हैं।
  4. यातायात की असुविधाओं के बावजूद, स्वेच्छा से निश्चित समय पर भारत के चारों कोनों से हिन्दूओं का यात्रा कर के प्रयाग, हरिदूार, नाशिक तथा काशी में कुम्भ स्नान के लिये ऐकत्रित हो जाना कोई जनसंख्या का त्रास्ती पलायन नहीं होता अपितु आस्था और हिन्दूओं के समान वैचारिक, सामाजिक और रीतिरीवाजों का प्रदर्शन है।
  5. देश भर में 12 ज्योतिर्लिंग हिन्दू ऐकता का अनूठा प्रमाण हैं। यह भी भारत की ऐकता का प्रतीक है जब प्रत्येक वर्ष पैदल चल कर लाखों की संख्या में आज भी काँवडिये हरिदूार से गंगा जल ला कर काशी स्थित ज्योतिर्लिंग का शिवरात्री के पर्व पर अभिषेक कराते हैं।
  6. ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति के अतिरिक्त राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान, दुर्गा तथा लक्ष्मी समस्त भारत के सर्वमान्य देवी-देवता हैं।
विश्व के किसी भी अन्य देश में भारत के जैसी समान रीति रिवाजों की परम्परा नहीं है। मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, रामनवमी, बुद्ध जयन्ती, वैशाखी, महीवीर जयन्ती जन्माष्टमी तथा दीपावली के अतिरिक्त कई पर्व हैं जो भारत के पर्यावरण, इतिहास, तथा जन नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं और विचारधारा की ऐकता के सूचक हैं। इन पर्वों की तुलना में ईद, मुहर्रम, क्रिसमिस, ईस्टर आदि पर्वों से भारत के जन साधारण का कोई सम्बन्ध नहीं।
चतुर्थ आधार – समान नैतिकता
नैतिकता की समानतायें हिन्दूओं के सभी साम्प्रदाओं में ऐक जैसी ही हैं। पाप और पुण्य की धारणायें भी समान हैं। समस्त हिन्दू राम की रावण पर विजय को धर्म की अधर्म पर विजय के अनुरूप देखते हैं। विदेशी लोग इस घटना को आर्यों की अनार्यों (द्राविडों) पर विजय का दुष्प्रचार तो करते हैं परन्तु वह यह तथ्य नहीं जानते कि दक्षिण भारत में भी कोई रावण, कुम्भकरण, या मेधनाद की मूर्ति घर में स्थापित नहीं करता।
विविधता में ऐकता स्वरूप हिन्दुत्व
व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में समानतायें पाई जाती हैं - 
  • सभी हिन्दू ऐकमत हैं कि ईश्वर ऐक है, निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है, ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भारत में भगवा रंग पवित्रता, वैराग्य, अध्यात्मिकता तथा ज्ञान का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।
सामाजिक विचारधारा के आधार पर हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दू कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूानो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रसमों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।
पर्यावर्ण के प्रति भी वैचारिक समानतायें हैं। समस्त नदीयाँ और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। मुख्य तथ्य यह है कि सभी हिन्दूओं पर ऐक ही आचार विचार तथा संस्कार संहिता लागू है।
हिन्दू संस्कृति ही भारत वासियों की राष्ट्रीय पहचान है। मुसलिम और ईसाई धर्मों के तीर्थ स्थल, धर्म ग्रँथ, नैतिकता के नियम अकसर हिन्दूओं के विरोध में आते है क्यों कि इन धर्मों का जन्म भारत के वातावरण में ना हो कर अन्य देशों में हुआ था। इस के फलस्वरूप उन के प्रेरणा स्त्रोत्र भी भारत से बाहर ही हैं। उन के जीवन नायक भी विदेशी है तथा वह भारत के मौलिक आधार से स्दैव संघर्ष करते रहै हैं। यदि वह स्थानीय विचारधारा को ना अपनायें तो निराधार धर्म निर्पेक्षी बनावटी राष्ट्रीयता उन्हें ऐक राष्ट्र में नहीं बाँध सकती।
 साभार : चाँद शर्मा

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