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Saturday, June 30, 2012

मुस्लिम वोट के लालच में देश को बांटने की संप्रग सरकार की शर्मनाक साजिश


इस वर्ष के अंत में देश के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यकों के मत बटोरने के उद्देश्य से संप्रग सरकार ने जिस तरह से खुलेआम मुस्लिम तुष्टीकरण का अभियान शुरू किया है उसके कारण देश और समाज के टुकड़े-टुकड़े होने का खतरा पैदा हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों को देश की एकता और सांप्रदायिकसद्भाव से कोई सरोकार नहीं है। भारत को विभाजित करने की जो नींव रखी जा रही है वह बेहद खतरनाक है। अगर देश नहीं चेता तो भविष्य में इसके खतरनाक परिणाम होंगे।

हाल में ही केंद्रीय गृह सचिव आर.के. सिंह ने सभी राज्यों को यह निर्देश दिया है कि देश के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मुस्लिम पुलिस अधिकारी नियुक्त किए जाएं। उन्होंने इस निर्देश को जारी करते हुए राजिंदर सच्चर कमेटी की सिफारिशों का उल्लेख किया है। उन्होंने यह तर्क दिया है कि इससे 'दबे-कुचले और अन्याय के शिकार' मुसलमानों में आत्मविश्वास पैदा होगा, वे मुस्लिम पुलिस अधिकारी के सामने बे-खटके अपनी समस्याएं रख सकेंगे।

तुगलकी फरमान: गृहसचिव ने सभी राज्यों को यह निर्देश दिया है कि वे हर छह महीने के बाद केंद्र सरकार को यह सूचना दें कि इन निर्देशों को कहां-कहां लागू किया गया है। साफ है कि संप्रग सरकार सांप्रदायिक आधार पर पुलिस बल को बांटना चाहती है। क्या देश के हिंदू नागरिकों को इस बात की शिकायत नहीं हो सकती कि मुसलमान पुलिस अधिकारियों से उन्हें न्याय मिलने वाला नहीं है? इस बात की क्या गारंटी है कि थानों में तैनात मुस्लिम पुलिस अधिकारी सांप्रदायिक दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे? अभी तक पुलिस से यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह निष्पक्ष रूप से अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगी। मगर अब सरकार उनमें सांप्रदायिकता का विष भर रही है। वैसे भी मुस्लिम वोटों के मोह में बौराई केंद्र सरकार इस तथ्य को भूल गई है कि शांति व्यवस्था राज्यों का अधिकार क्षेत्र है। राज्यों के अधिकारों का हनन करने का केंद्र सरकार को क्या अधिकार है?

जहां तक सच्चर कमेटी का संबंध है तो केंद्र सरकार ने इसका गठन ही इस उद्देश्य से किया था कि मुसलमानों का तुष्टीकरण किया जा सके। इस कमेटी के प्रमुख न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर भले ही दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे हों मगर जो उन्हंे नजदीक से जानते हैं वे इस तथ्य से भी भलीभांति परिचित होंगे कि न्यायिक सेवा में शामिल होने से पूर्व राजिंदर सच्चर पंजाब राज्य कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हुआ करते थे। उनके पिता स्वर्गीय भीमसेन सच्चर गुजरांवाला के रहने वाले थे। पाकिस्तान बनने से पहले तक वे अपने नगरवासियों को यह विश्वास दिलाते रहे कि पाकिस्तान का निर्माण किसी भी कीमत पर नहीं होगा। मगर पाकिस्तान के गठन की घोषणा होने के तुरंत बाद उन्होंने सबसे पहले पूर्व प्रधानमंत्री श्री इंदर कुमार गुजराल के पिता श्री अवतार नारायण गुजराल के साथ लाहौर से विमान पकड़ा और कराची जाकर पाकिस्तानी संविधान सभा के सदस्य के रूप में शपथ ग्रहण कर ली। उन्होंने इस बात की कोई चिंता नहीं की कि पाकिस्तान में मुस्लिम लीग के सशस्त्र रजाकार फौज और पुलिस के साथ मिलकर हिंदुओं और सिखों के खून की होली खेल रहे हैं। ऐसे व्यक्ति से न्याय की आशा करना सरासर व्यर्थ है। इस बात को कौन नहीं जानता कि उन्होंने पूर्व सेना अध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह से यह सूचना मांगी थी कि भारतीय सेना में मुसलमानों का कितना प्रतिनिधित्व है। जनरल सिंह ने उन्हें इस संबंध में कोई भी सूचना देने से यह कहकर इंकार कर दिया कि भारतीय सेना में काम करने वाले सभी सैनिक भारतवासी हैं। इसलिए उनका सांप्रदायिक आधार पर कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता। ऐसे व्यक्ति की रपट को आधार बनाकर पुलिस विभाग में सांप्रदायिक आधार पर जो विभाजन पैदा करने की कोशिश की जा रही है वह देश की एकता के लिए बेहद खतरनाक है।

सपा भी दौड़ में शामिल: मुस्लिम तुष्टीकरण की जो अंधी दौड़ चल रही है उसमें समाजवादी पार्टी भला कांग्रेस से पीछे कैसे रह सकती है। इसलिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने घोषणा की है कि राज्य में 18  प्रतिशत थानों में मुस्लिम अधिकारी नियुक्त किए जाएंगे। उनका तर्क है कि समाजवादी पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात से आरक्षण देने का वायदा किया था। क्या इससे सांप्रदायिक विभाजन को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा?

अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह ने देश में इस्लामिक बैंकिंग को लागू करने की जोरदार वकालत करनी शुरू कर दी है। कट्टरवादी मुसलमान इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था को देश में लागू करने की काफी पहले से मांग करते आ रहे हैं। उनका तर्क है कि यदि यह व्यवस्था लागू कर दी गई तो विदेशों में रहनेवाले मुसलमानों से अरबों डॉलर की सहायता प्राप्त होगी। राज्य सभा में सरकार यह स्वीकार कर चुकी है कि भारतीय रिजर्व बैंक वर्तमान व्यवस्था में इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था को देश में लागू करने के लिए तैयार नहीं है। अजीब बात है कि अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष इसके बावजूद वित्त मंत्रालय पर इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था को लागू करने पर दबाव डाल रहे हैं। उनका तर्क है कि भारतीय बैंकों में मुस्लिम खातेदारों के जो खाते हैं उनके ब्याज के रूप में 4 हजार करोड़ रुपये पड़े हुए हैं। यह धनराशि मुसलमानों में वितरित की जानी चाहिए। क्या इसे देश की एकता के लिए खतरा माना नहीं जाना चाहिए? इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था की आड़ में विदेशों से जो धनराशि प्राप्त होगी उसका एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों में वितरित किया जाएगा। क्या इस धनराशि को प्राप्त करने के लोभ में गैर मुसलमान 'इस्लाम' को स्वीकार करने से गुरेज करेंगे? क्या इससे देश में मतान्तरण को बढ़ावा नहीं मिलेगा? क्या प्रलोभन द्वारा मतान्तरण करना देश की एकता के लिए खतरनाक नहीं होगा?

ध्यान देने की बात यह है कि जमायते इस्लामी, जो कि काफी समय से देश में इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था को लागू करने पर जोर दे रही है, ने वजाहत हबीबुल्लाह  के इस सुझाव का स्वागत किया है। इस बात को कौन नहीं जानता कि वजाहत हबीबुल्लाह नेहरू परिवार के बहुत नजदीक रहे हैं। उनकी माता जी कभी राज्य सभा में कांग्रेस की सदस्या हुआ करती थीं। केरल में मुस्लिम संगठनों द्वारा इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था की आड़ में इस्लामी देशों के पूंजी निवेश की मांग को कुछ वर्ष पूर्व उछाला गया था। मगर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इस मांग को अव्यावहारिक बताते हुए ठुकरा दिया था। अब संप्रग की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के इशारे पर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष आने वाले चुनावों में मुस्लिम मतों को कांग्रेस की झोली में डलवाने के उद्देश्य से पुन: इस मांग को उछाल रहे हैं। क्या इस मांग से देश और समाज में एक नए विभाजन की नींव नहीं रख दी जाएगी?

कानून में भेदाभेद क्यों?: अभी मुंबई में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधिवेशन में अतिवादी मुसलमानों ने यह शिकायत की थी कि देश की अदालतें शरियत कानूनांे में हस्तक्षेप कर रही हैं, जो कि संविधान के विरुद्ध है। इस अधिवेशन में इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन छेड़ने की धमकी भी दी गई थी। महाराष्ट्र सरकार ने तलाकशुदा महिलाओं को उनके पूर्व पति की संपत्ति में हिस्सा देने के संबंध में राज्य विधानसभा में एक विधेयक पेश करने की घोषणा की थी। इसका विरोध महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री आरिफ नसीम खां ने यह कहकर किया कि यह विधेयक इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है। मुसलमान अपने शरई कानूनों में किसी तरह का हस्तक्षेप सहन नहीं करेंगे। इस धमकी के बाद यह विधेयक सदा के लिए खटाई में डाल दिया गया।

हाल में ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया है जिसमें कहा गया है कि यदि कोई मुस्लिम लडकी 15 वर्ष की आयु में 'वयस्क' हो जाती है तो वह अपनी मर्जी से विवाह कर सकती है और उसका यह विवाह कानूनी दृष्टि से मान्य होगा। अदालत ने कहा है कि इस्लामी कानून में इस बात की व्यवस्था है। प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या इस देश में प्रत्येक मत-पंथ के लोगों के लिए अलग-अलग कानून होगा? 'हिंदू मैरिज एक्ट' के अनुसार 18 वर्ष से कम उम्र की शादी मान्य नहीं है, जबकि 'चाइल्ड मैरिज एक्ट' के तहत 18 वर्ष से कम आयु की लड़की और 21 वर्ष से कम उम्र के लड़के की शादी नहीं हो सकती और अगर ऐसा होता है तो वह अमान्य होगी। यदि कोई व्यक्ति ऐसी शादी करवाता है तो उसे दो साल तक की जेल और एक लाख रु. तक का जुर्माना हो सकता है। ऐसी स्थिति में 15 वर्ष की आयु की लड़की की शादी को जायज करार देना क्या कानून का उल्लंघन नहीं है?

साफ है कि संप्रग सरकार मुस्लिम वोट प्राप्त करने के लिए जानबूझकर सभी कायदे-कानूनों और नियमों को ताक पर रखने पर तुली हुई है। मुस्लिम वोट बटोरने के मोह में वह भारतीय समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने का प्रयास कर रही है, जो कि देश के लिए बेहद खतरनाक है।

- मनमोहन शर्मा, पाञ्चजन्य

भारत में छूआछूत का कलंक किसकी देन?


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कुछ लोगों का मानना है कि भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार बहुत ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुआ है। उनका यह भी कहना है की हिंदू समाज में छुआछात के कारण भारत में हिन्दुओं ने बड़ी मात्रा में इस्लाम को अपनाया। उनके शब्दों में - "हिंदुओं के मध्‍य फैले रूढिगत जातिवाद और छूआछात के कारणवश खासतौर पर कथित पिछड़ी जातियों के लोग इस्‍लाम के साम्‍यभाव और भाईचारे की ओर आकृष्‍ट हुए और स्‍वेच्‍छापूर्वक इस्‍लाम को ग्रहण किया।"

जिन लोगों ने अंग्रेजों द्वारा लिखे गए व स्वतंत्र भारत के वामपंथी 'बुद्धिजीवियों' द्वारा दुर्भावनापूर्वक विकृत किये गए भारतीय इतिहास को पढ़कर अपनी उपर्युक्त धारणाएँ बना रखीं हैं, उन्हें इतिहास का शोधपरक अध्ययन करना चाहिए। उपर्युक्त कथन के विपरीत, सूर्य जैसा जगमगाता हुआ सच तो यह है कि भारत के लोगों का इस्लाम के साथ पहला-पहला परिचय युद्ध के मैदान में हुआ था।


भारतवासियों ने पहले ही दिन से 'दीन' के बन्दों के 'ईमान' में मल्लेछ प्रवृत्ति वाले असुरों की झलक को साफ़-साफ़ देख लिया था तथा उस पहले ही दिन से भारत के लोगों ने उन क्रूर आक्रान्ताओं और बर्बर लोगों से घृणा करना शुरू कर दिया था।

अतः, इस कथन में कोई सच्चाई नहीं है कि भारत के लोगों ने इस्लाम के कथित 'साम्यभाव और भाईचारे' के दर्शन किये और उससे आकर्षित होकर स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को ग्रहण किया।

असल में, हिंदुत्व और इस्लाम, दोनों बिलकुल भिन्न विचारधाराएँ हैं, बल्कि साफ़ कहा जाए तो दोनों एक दूसरे से पूर्णतया विपरीत मान्यताओं वाली संस्कृतियाँ हैं, जिनके मध्य सदियों पहले शुरू हुआ संघर्ष आज तक चल रहा है।

हाँ, इस्लामी आक्रमण के अनेक वर्षों बाद भारत में कुछ समय के लिए सूफियों का खूब बोलबाला रहा। सूफियों के उस 'उदारवादी' काल में निश्चित रूप से इस्लामी क्रूरता भी मंद पड़ गयी थी। परन्तु, उस काल में भी भारत के मूल हिंदू समाज ने कथित इस्लामी 'साम्यभाव' से मोहित होकर स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को अपनाने का कोई अभियान शुरू कर दिया था, इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है।

हाँ, संघर्ष की इस लम्बी कालावधि में स्वयं समय ने ही कुछ घाव भरे और अंग्रेजों के आगमन से पहले तक दोनों समुदायों के लोगों ने परस्पर संघर्ष रहित जीवन जीने का कुछ-कुछ ढंग सीख लिया था। उस समय इस्लामिक कट्टरवाद अंततः भारतीय संस्कृति में विलीन होने लगा था।

यथार्थ में, भारत के हिन्दुओं को इस्लाम के कथित 'साम्यभाव और भाईचारे' का कभी भी परिचय नहीं मिल पाया। इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि मुसलमानों ने भारत के सनातन-हिंदू-धर्मावलम्बियों के साथ किसी दूसरे कारण से नहीं, बल्कि इस्लाम के ही नाम पर लगातार संघर्ष जारी रखा है। हिन्दुओं ने भी इस्लामी आतकवादियों के समक्ष कभी भी अपनी हार नहीं मानी और वे मुसलमानों के प्रथम आक्रमण के समय से ही उनके अमानवीय तौर-तरीकों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करते आ रहे हैं। महमूद गज़नबी हो या तैमूरलंग, नादिरशाह हो या औरंगजेब, जिन्ना हो या जिया उल हक अथवा मुशर्रफ, कट्टरपंथी मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं का संघर्ष पिछले 1200 वर्षों से लगातार चलता आ रहा है।

जिस इस्लाम के कारण भारत देश में सदियों से चला आ रहा भीषण संघर्ष आज भी जारी हो, उसके मूल निवासियों के बारे में यह कहना कि यहाँ के लोग उसी 'इस्‍लाम के साम्‍यभाव और भाईचारे की ओर आकृष्‍ट हुए', एक निराधार कल्पना मात्र है, जोकि सत्य से कोसों दूर है। भारत के इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता जिसमे हिंदू समाज के लोगों ने इस्लाम में साम्यभाव देखा हो और इसके भाई चारे से आकृष्ट होकर लोगों ने सामूहिक रूप से इस्लाम को अपनाया हो।

आइये, अब हिन्दुओं के रूढ़िगत जातिवाद और छुआछूत पर भी विचार कर लें।

हिन्दुओं में आदिकाल से गोत्र व्यवस्था रही है, वर्ण व्यवस्था भी थी, परन्तु जातियाँ नहीं थीं। वेद सम्मत वर्ण व्यवस्था समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन की दृष्टि से लागू थी। यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर सीधे-सीधे कर्म (कार्य) पर आधारित थी।कोई भी वर्ण दूसरे को ऊँचा या नीचा नहीं समझता था।

उदारणार्थ- अपने प्रारंभिक जीवन में शूद्र कर्म में प्रवृत्त वाल्मीकि जी जब अपने कर्मों में परिवर्तन के बाद पूजनीय ब्राह्मणों के वर्ण में मान्यता पा गए तो वे तत्कालीन समाज में महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। श्री राम सहित चारों भाइयों के विवाह के अवसर पर जब जनकपुर में राजा दशरथ ने चारों दुल्हनों की डोली ले जाने से पहले देश के सभी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के लिए बुलाया था, तो उन्होंने श्री वाल्मीकि जी को भी विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया था।

संभव है, हिंदू समाज में मुसलमानों के आगमन से पहले ही जातियाँ अपने अस्तित्व में आ गयी हों, परन्तु भारत की वर्तमान जातिप्रथा में छुआछूत का जैसा घिनौना रूप अभी देखने में आता है, वह निश्चित रूप से मुस्लिम आक्रान्ताओं की ही देन है।

कैसे?

देखिए-आरम्भ से ही मुसलमानों के यहाँ पर्दा प्रथा अपने चरम पर रही है। यह भी जगजाहिर है कि मुसलमान लड़ाकों के कबीलों में पारस्परिक शत्रुता रहा करती थी। इस कारण, कबीले के सरदारों व सिपाहियों की बेगमे कभी भी अकेली कबीले से बाहर नहीं निकलती थीं। अकेले बाहर निकलने पर इन्हें दुश्मन कबीले के लोगों द्वारा उठा लिए जाने का भय रहता था। इसलिए, ये अपना शौच का काम भी घर में ही निपटाती थीं। उस काल में कबीलों में शौच के लिए जो व्यवस्था बनी हुई थी, उसके अनुसार घर के भीतर ही शौच करने के बाद उस विष्टा को हाथ से उठाकर घर से दूर कहीं बाहर फेंककर आना होता था।

सरदारों ने इस काम के लिए अपने दासों को लगा रखा था। जो व्यक्ति मैला उठाने के काम के लिए नियुक्त था, उससे फिर खान-पान से सम्बंधित कोई अन्य काम नहीं करवाते थे। स्वाभाविक रूप से कबीले के सबसे निकम्मे व्यक्ति को ही विष्ठा उठाने वाले काम में लगाया जाता था। कभी-कभी दूसरे लोगों को भी यह काम सजा के तौर पर करना पड़ जाता था। इस प्रकार, वह मैला उठाने वाला आदमी इस्लामी समाज में पहले तो निकृष्ट/नीच घोषित हुआ और फिर एकमात्र विष्टा उठाने के ही काम पर लगे रहने के कारण बाद में उसे अछूत घोषित कर दिया गया।

वर्तमान में, हिंदू समाज में जाति-प्रथा और छूआछात का जो अत्यंत निंदनीय रूप देखने में आता है, वह इस समाज को मुस्लिम आक्रान्ताओं की ही देन है। आगे इसे और अधिक स्पष्ट करेंगे कि कैसे?

अपने लम्बे संघर्ष के बाद चंद जयचंदों के पाप के कारण जब इस्लाम भारत में अपनी घुसपैठ बनाने में कामयाब हो ही गया, तो बाद में कुतर्क फ़ैलाने में माहिर मुसलमान बुद्धिजीविओं ने घर में बैठकर विष्टा करने की अपनी ही घिनौनी रीत को हिंदू समाज पर थोप दिया और बाद में हिन्दुओं पर जातिवाद और छुआछात फ़ैलाने के उलटे आरोप मढ़ दिए।

यह अकाट्य सत्य है कि मुसलमानों के आने से पहले घर में शौच करने और मैला ढोने की परम्परा सनातन हिंदू समाज में थी ही नहीं। जब हिंदू शौच के लिए घर से निकल कर किसी दूर स्थान पर ही दिशा मैदान के लिए जाया करते थे, तो विष्टा उठाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जब विष्टा ढोने का आधार ही समाप्त हो जाता है, तो हिंदू समाज में अछूत कहाँ से आ गया?

हिन्दुओं के शास्त्रों में इन बातों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि व्यक्ति को शौच के लिए गाँव के बाहर किस दिशा में कहाँ जाना चाहिए तथा कब, किस दिशा की ओर मुँह करके शौच के लिए बैठना चाहिए आदि-आदि।

प्रमाण-

नैऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्याभ्यधि कमभुवः I (पाराशरo)
"यदि खुली जगह मिले तो गाँव से नैऋत्यकोण (दक्षिण और पश्चिम के बीच) की ओर कुछ दूर जाएँ।"

दिवा संध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्र उद्न्मुखः I
कुर्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ च दक्षिणामुखः II (याज्ञ o१ I १६, बाधूलस्मृ o८)

"शौच के लिए बैठते समय सुबह, शाम और दिन में उत्तर की ओर मुँह करें तथा रात में दक्षिण की ओर"

(सभी प्रमाण जिस नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर, संवत २०५४, चोदहवाँ संस्करण, पृष्ठ १३ से उद्धृत किये गए हैं, वह पुस्तक एक सामान्य हिंदू के घर में सहज ही उपलब्ध होती है)।

इस्लाम की विश्वव्यापी आँधी के विरुद्ध सत्वगुण संपन्न हिंदू समाज के भीषण संघर्ष की गाथा बड़ी ही मार्मिक है।

'दीन' के नाम पर सोने की चिड़िया को बार-लूटने के लिए आने वाले मुसलमानों ने उदार चित्त हिन्दुओं पर बिना चेतावनी दिए ही ताबड़तोड़ हमले बोले। उन्होंने हिंदू ललनाओं के शील भंग किये, कन्याओं को उठाकर ले गए। दासों की मण्डी से आये बर्बर अत्याचारियों ने हारे हुए सभी हिंदू महिला पुरुषों को संपत्ति सहित अपनी लूट की कमाई समझा और मिल-बाँटकर भोगा। हजारों क्षत्राणियों को अपनी लाज बचाने के लिए सामूहिक रूप से जौहर करना पड़ा और वे जीवित ही विशाल अग्नि-कुण्डों में कूद गयीं।

हिन्दुओं को इस्लाम अपनाने के लिए पीड़ित करते समय घोर अमानवीय यंत्रनाएँ दीं गयीं। जो लोग टूट गए, वे मुसलमान बन जाने से इनके भाई हो गए और अगली लूट के माल में हिस्सा पाने लगे। जो जिद्दी हिंदू अपने मानव धर्म पर अडिग रहे तथा जिन्हें बलात्कारी लुटेरों का साथी बनना नहीं भाया, उन्हें निर्दयता से मार गिराया गया। अपने देश में सोनिया माइनो के कई खास सिपाहसालार तथा मौके को देखकर आज भी तुरंत पाला बदल जाने वाले अनेकानेक मतान्तरित मुसलमान उन्हीं सुविधाभोगी तथाकथित हिन्दुओं की संतानें हैं, जो पहले कभी हिंदू ही थे तथा जिन्होंने जान बचाने के लिए अपने शाश्वत हिंदू धर्म को ठोकर मार दी। उन लोगों ने अपनी हिफाज़त के लिए अपनी बेटियों की लाज को तार-तार हो जाने दिया और उन नर भेड़ियों का साथ देना ही ज्यादा फायदेमंद समझा। बाद में ये नए-नए मुसलमान उन लुटेरों के साथ मिलकर अपने दूसरे हिंदू रिश्तेदारों की कन्याओं को उठाने लगे।

किसी कवि की दो पंक्तियाँ हैं, जो उस काल के हिन्दुओं के चरित्र का सटीक चित्रण करती हैं-

जिनको थी आन प्यारी वो बलिदान हो गए,
जिनको थी जान प्यारी, मुसलमान हो गए I

विषय के विस्तार से बचते हुए, यहाँ, अपनी उस बात को ही और अधिक स्पष्ट करते हैं कि कैसे मुसलमानों ने ही हिन्दुओं में छुआछूत के कलंक को स्थापित किया। अल्लाह के 'दीन' को अपने 'ईमान' से दुनिया भर में पहुँचाने के अभियान पर निकले निष्ठुर कठमुल्लों ने हिंदू को अपनी राह का प्रमुख रोड़ा मान लिया था। इसलिए, उन्होंने अपने विश्वास के प्रति निष्ठावान हिंदू पर बेहिसाब जुल्म ढहाए। आततायी मुसलमान सुल्तानों के जमाने में असहाय हिंदू जनता पर कैसे-कैसे अत्याचार हुए, उन सबका अंश मात्र भी वर्णन कर पाना संभव नहीं है।

मुसलमानों के अत्याचारों के खिलाफ लड़ने वाले हिन्दू  वीरों की तीन प्रकार से अलग-अलग परिणतियाँ हुईं।

पहली परिणति - जिन हिंदू वीरों को धर्म के पथ पर लड़ते-लड़ते मार गिराया गया, वे वीरगति को प्राप्त होकर धन्य हो गए। उनके लिए सीधे मोक्ष के द्वार खुल गए।

दूसरी परिणति - जो हिन्दू मौत से डरकर मुसलमान बन गए, उनकी चांदी हो गई। अब उन्हें किसी भी प्रकार का सामाजिक कष्ट न रहा, बल्कि उनका सामाजिक रुतबा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया। अब उन्हें धर्म के पक्के उन जिद्दी हिन्दुओं के ऊपर ताल्लुकेदार बनाकर बिठा दिया गया, जिनके यहाँ कभी वे स्वयं चाकरी किया करते थे। उन्हें करों में ढेरों रियायतें मिलने लगीं, जजिये की तो चिंता ही शेष न रही।

तीसरी परिणति - हज़ार वर्षों से भी अधिक चले हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का यह सबसे अधिक मार्मिक और पीड़ाजनक अध्याय है।

यह तीसरे प्रकार की परिणति उन हिंदू वीरों की हुई, जिन्हें युद्ध में मारा नहीं गया, बल्कि कैद कर लिया गया। मुसलमानों ने उनसे इस्लाम कबूलवाने के लिए उन्हें घोर यातनाएँ दीं। चूँकि, अपने उदात्त जीवन में उन्होंने असत्य के आगे कभी झुकना नहीं सीखा था, इसलिए सब प्रकार के जुल्मों को सहकर भी उन्होंने इस्लाम नहीं कबूला। अपने सनातन हिंदू धर्म के प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें मुसलमान न बनने दिया और परिवारों का जीवन घोर संकट में था, अतः उनके लिए अकेले-अकेले मरकर मोक्ष पा जाना भी इतना सहज नहीं रह गया था।

ऐसी विकट परिस्थिति में मुसलमानों ने उन्हें जीवन दान देने के लिए उनके सामने एक घृणित प्रस्ताव रख दिया तथा इस प्रस्ताव के साथ एक शर्त भी रख दी गई। उन्हें कहा गया कि यदि वे जीना चाहते हैं, तो मुसलमानों के घरों से उनकी विष्टा (टट्टी) उठाने का काम करना पड़ेगा। उनके परिवारजनों का काम भी साफ़-सफाई करना और मैला उठाना ही होगा तथा उन्हें अपने जीवन-यापन के लिए सदा-सदा के लिए केवल यही एक काम करने कि अनुमति होगी।

१९ दिसम्बर १४२१ के लेख के अनुसार, जाफर मक्की नामक विद्वान का कहना है कि "हिन्दुओं के इस्लाम ग्रहण करने के मुखय कारण थे, मृत्यु का भय, परिवार की गुलामी, आर्थिक लोभ (जैसे-मुसलमान होने पर पारितोषिक, पेंशन और युद्ध में मिली लूट में भाग), हिन्दू धर्म में घोर अन्ध विश्वास और अन्त में प्रभावी धर्म प्रचार।"

इस प्रकार, समय के कुचक्र के कारण अनेक स्थानों पर हजारों हिंदू वीरों को परिवार सहित जिन्दा रहने के लिए ऐसी घोर अपमानजनक शर्त स्वीकार करनी पड़ी। मुसलमानों ने पूरे हिंदू समाज पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की रणनीति पर काम किया और उन्होंने वीर क्षत्रियों को ही अपना मुख्य निशाना बनाया। मुस्लिम आतंकवाद के पागल हाथी ने हिंदू धर्म के वीर योद्धाओं को परिवार सहित सब प्रकार से अपने पैरों तले रौंद डाला। सभी तरह की चल-अचल संपत्ति पहले ही छीनी जा चुकी थी। घर जला दिए गए थे।

परिवार की  महिलाओं और कन्याओं पर असुरों की गिद्ध-दृष्टि लगी ही रहती थी। फिर भी, अपने कर्म सिद्धांत पर दृढ़ विश्वास रखने वाले उन आस्थावान हिन्दुओं ने अपने परिवार और शेष हिंदू समुदाय के दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी नियति को स्वीकार किया और पल-पल अपमान के घूँट पीते हुए अपने राम पर अटूट भरोसा रखा। उपासना स्थलों को पहले ही तोड़ दिया गया था, इसलिए उन्होंने अपने हृदय में ही राम-कृष्ण की प्रतिमाएँ स्थापित कर लीं। परस्पर अभिवादन के लिए वेद सम्मत 'नमस्ते' को तिलांजली दे डाली और 'राम-राम' बोलने का प्रचार शुरू कर दिया। समय निकला तो कभी आपस में बैठकर सत्संग भी कर लिया। छुप-छुप कर अपने सभी उत्सव मनाते रहे और सनातन धर्म की पताका को अपने हृदयाकाश में ही लहराते रहे।

उनका सब कुछ खण्ड-खण्ड हो चुका था, परन्तु, उन्होंने धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को लेशमात्र भी खंडित नहीं होने दिया। धर्म परिवर्तन न करने के दंड के रूप में मुसलमानों ने उन्हें परिवारसहित केवल मैला ढोने के एकमात्र काम की ही अनुमति दी थी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही करते चले गए। कई पीढ़ियाँ बीत जाने पर अपने कर्म में ही ईश्वर का वास समझने वाले उन कर्मनिष्ठ हिन्दुओं के मनो में से नीच कर्म का अहसास करने वाली भावना ही खो गई। अब तो उन्हें अपने अपमान का भी बोध न रहा।

मुसलमानों की देखा-देखी हिन्दुओं को भी घर के भीतर ही शौच करने में अधिक सुविधा लगने लगी तथा अब वे मैला उठाने वाले लोग हिन्दुओं के घरों में से भी मैला उठाने लगे। इस प्रकार, किसी भले समय के राजे-रजवाड़े मुस्लिम आक्रमणों के कुचक्र में फंस जाने से अपने धर्म की रक्षा करने के कारण पूरे समाज के लिए ही मैला ढोने वाले अछूत और नीच बन गए।

उक्त शोधपरक लेख न तो किसी पंथ विशेष को अपमानित करने के लिए लिखा गया है और न ही दो पंथिक विचारधाराओं में तनाव खड़ा करने के लिए। केवल ऐतिहासिक भ्रांतियों को उजागर करने के लिए लिखे गये इस लेख में प्रमाण सहित घटनाओं की क्रमबद्धता प्रस्तुत की गयी है।

वर्ण और जाति में भारी अंतर है तथा यह लेख मूलतः छूआछूत के कलंक के उदगम को ढूँढने का एक प्रयास है।

मुसलमानों ने मैला ढोने वालों के प्रति अपने परम्परागत आचरण के कारण और उनके हिंदू होने पर उनके प्रति अपनी नफरत व्यक्त करने के कारण उन्हें अछूत माना तथा मुसलमान गोहत्या करते थे, इसलिए मुसलमानों से किसी भी रूप में संपर्क रखने वाले (भले ही उनका मैला ढोने वाले) लोगों को हिंदू समाज ने अछूत माना। इस प्रकार, दलित बन्धु दोनों ही समुदायों के बीच घृणा की चक्की में पिसते रहे।

इस लेख में कहीं भी हिंदू समाज को छूआछूत को बढ़ावा देने के आरोप से मुक्त नहीं किया गया है।

प्रमाण के रूप में कुछ गोत्र प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जो समान रूप से क्षत्रियों में भी मिलते हैं और आज के अपने अनुसूचित बंधुओं में भी। genome के विद्वान् अपने परीक्षण से सहज ही यह प्रमाणित कर सकते हैं कि ये सब भाई एक ही वंशावली से जुड़े हुए हैं।

उदाहरण- चंदेल, चौहान, कटारिया, कश्यप, मालवण, नाहर, कुंगर, धालीवाल, माधवानी, मुदई, भाटी, सिसोदिया, दहिया, चोपड़ा, राठौर, सेंगर, टांक, तोमर आदि-आदि-आदि।

जरा सोचिये, हिंदू समाज पर इन कथित अछूत लोगों का कितना बड़ा ऋण है। यदि उस कठिन काल में ये लोग भी दूसरी परिणति वाले स्वार्थी हिन्दुओं कि तरह ही तब मुसलमान बन गए होते तो आज अपने देश की क्या स्थिति होती? और सोचिये, आज हिन्दुओं में जिस वर्ग को हम अनुसूचित जातियों के रूप में जानते हैं, उन आस्थावान हिन्दुओं की कितनी विशाल संख्या है, जो मुस्लिम दमन में से अपने राम को सुरक्षित निकालकर लाई है।

क्या अपने सनातन हिंदू धर्म की रक्षा में इनका पल-पल अपमानित होना कोई छोटा त्याग था? क्या इनका त्याग ऋषि दधिची के त्याग की श्रेणी में नहीं आता?

स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि जब किसी एक हिंदू का मतान्तरण हो जाता है, तो न केवल एक हिंदू कम हो जाता है, बल्कि हिन्दुओं का एक शत्रु भी बढ़ जाता है।

साभार : चन्दन प्रियदर्शी, IBTL

नटराज शिव


नटराज दो शब्दों के समावेश से बना है – नट (अर्थात कला) और राज। इस स्वरूप में शिव समस्त कलाओं के आधार हैं। शिव के प्रसिद्ध तांडव नृत्य के दो स्वरूप हैं। 



1. उनके क्रोध का परिचायक, प्रलंयकारी रौद्र तांडव 
2. आनंद प्रदान करने वाला आनंद तांडव।



किन्तु अधिकतर लोग तांडव शब्द को शिव के क्रोध का पर्याय ही समझते हैं। रौद्र तांडव करने वाले शिव ‘रुद्र’ हैं, जबकि आनंद तांडव करने वाले शिव ‘नटराज’ हैं।



प्राचीन आचार्यों के मतानुसार शिव के आनन्द तांडव से ही सृष्टि अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टि का विलय हो जाता है। शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भाँति मनमोहक है तथा उसकी अनेक व्याख्यायें हैं।



नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मूर्ति की चार भुजाएँ हैं, उनके चारों ओर अग्नि के घेरे हैं। उन्होंने अपने एक पाँव से एक बौने को दबा रखा है, एवं दूसरा पाँव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है।



उन्होंने अपने पहले दाहिने हाथ में (जो कि उपर की ओर उठा हुआ है) डमरु पकड़ा हुआ है। डमरू की आवाज़ सृजन का प्रतीक है। इस प्रकार यहाँ शिव का तांडव उनकी सृजनात्मक शक्ति का द्योतक है।



ऊपर की ओर उठे हुए उनके दूसरे हाथ में अग्नि है। यहाँ अग्नि विनाश की प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाथ से सृजन करते हैं तथा दूसरे हाथ से विलय।



उनका दूसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है जो बुराईयों से हमारी रक्षा करता है।



उठा हुआ पाँव मोक्ष का द्योतक है। उनका दूसरा बाँया हाथ उनके उठे हुए पांव की ओर इंगित करता है। इसका अर्थ यह है कि शिव मोक्ष के मार्ग का सुझाव करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है।



उनके पांव के नीचे कुचला हुआ बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। शिव अज्ञान का विनाश करते हैं।
चारों ओर उठ रही आग की लपटें इस ब्रह्माण्ड की प्रतीक हैं। उनके शरीर पर से लहराते सर्प कुण्डलिनि शक्ति के द्योतक हैं। उनकी संपूर्ण आकृति ॐकार स्वरूप जैसी दीखती है। यह इस बाद को इंगित करता है कि ॐ शिव में ही निहित है।
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साभार देवो के देव महादेव, फेसबुक 

अर्धनरनारीश्वर…






अर्धनरनारीश्वर…


सृष्टी के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शिव स्वयं पुरूष लिंग के द्योतक हैं तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग की द्योतक| पुरुष (शिव) एवं स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर भी हैं और नारी भी, अतः वे अर्धनरनारीश्वर हैं।



जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनायं अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जायंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा। अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदान की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान हो गए।


शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?


शिव कारण हैं; शक्ति कारक।

शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी।

शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था।

शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय।

शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती।

शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी।

शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती।

शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।

शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।


शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर क्या है? जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध। आएं तथा प्रार्थना करें शिव-शक्ति के इस अर्धनारीश्वर स्वरूप का इस अर्धनारीश्वर स्तोत्र द्वारा 



साभार : देवो के देव महादेव, फेसबुक 

Thursday, June 28, 2012

जागो हिंदू जागो....



जो कौम इतिहास से नही सीखती वो बर्बाद होकर मिट्टी मे मिल जाती है |

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जो हिंदू इस घमंड मे जी रहे है कि अरबो सालो से सनातन धर्म है और इसे कोई नही मिटा सकता मै उन्हें मुर्ख और बेवकूफ ही समझता हूँ |


आखिर अफगानीस्तान से हिंदू क्यों मिट गया ?

काबुल जो भगवान राम के पुत्र कुश का बनाया शहर था आज वहाँ एक भी मंदिर नही बचा |

गंधार जिसका विवरण महाभारत मे है जहां की रानी गांधारी थी आज उसका नाम कंधार हो चूका है और वहाँ आज एक भी हिंदू नही बचा |

कम्बोडिया जहां राजा सूर्य देव बर्मन ने दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर अंकोरवाट बनाया आज वहा भी हिंदू नही है |

बाली द्वीप मे २० साल पहले तक ९०% हिंदू थे आज सिर्फ २०% बचे |

कश्मीर घाटी मे सिर्फ २० साल पहले ५०% हिंदू थे , आज एक भी हिंदू नही बचा |

केरल मे १० साल पहले तक ६०% जनसंख्या हिन्दुओ की थी आज सिर्फ १०% हिंदू केरल मे है |

नोर्थ ईस्ट जैसे सिक्किम, नागालैंड , आसाम आदि मे हिंदू हर रोज मारे या भगाए जाते है या उनका धर्मपरिवर्तन हो रहा है |

मित्रों, १५६९ तक ईरान का नाम पारस या पर्शिया होता था और वहाँ एक भी मुस्लिम नही था सिर्फ पारसी रहते थे .. जब पारस पर मुस्लिमो का आक्रमण होता था तब पारसी बूढ़े बुजुर्ग अपने नौजवान को यही सिखाते थे की हमे कोई मिटा नही सकता .

लेकिन ईरान से सारे के सारे पारसी मिटा दिये गए .. धीरे धीरे उनका कत्लेआम और धर्मपरिवर्तन होता रहा .. एक नाव मे बैठकर २१ पारसी किसी तरह गुजरात के नवसारी जिले के उद्वावाडा गांव मे पहुचे और आज पारसी सिर्फ भारत मे ही गिनती की संख्या मे बचे है |

कांग्रेस के लोग कृपा करके सोनिया गाँधी को समझाये की वो विभाजन काल की ग़लती को ना दुहराएँ. जो इतिहास से कुछ सीखता नही वो मिट जाता है. 


सूरहावर्दी ने 1946 मे कलकत्ता मे हिंदुओं का क़त्ले आम करने के लिए 24 मे से 22 पुलिस थाने मुस्लिम अधिकारीओं और 2 अन्ग्लो इंडियन अधिकारीओं के हवाले किया था यही हाल पूरे बंगाल का था. हमारे केंद्रीय गृह सचिव यदि किसी महा भयंकर षड्यंत्र को नही समझते तो उन्हे पद पर बना रहने का अधिकार नही है. 


26/11 के पाकिस्तानी हमले के समय कौन था मुंबई का पुलिस सर्वोच्च अधिकारी और कहाँ बैठा था क्या कर रहा था ज़रा सोचिए गंभीरता से. इसकी भयानकता के बारे मे अंदाज लगाना ही है तो इस देश की देशभक्त जनता पर उपकर करने के लिए श्री माधव गोड़बोले आइ ए एस भू. पु. केंद्रीय गृह सचिव की लिखित "दी हॉलोकास्ट ऑफ इंडियन पार्टीशन: एन इंक्वेस्ट" यह किताब पूरी संजीदगी से पढ़ें जिसमे एक भी लफ़्ज बिना आधार के काल्पनिक नही लिखा गया; आप आज उसी पद पर हैं. यह आदेश जारी करके हिंदुओं के भावी क़त्ले आम की सुविधा कर रहे हैं.


साभार : नवीन कुमार, फेसबुक 

भगवान राम, राजा या भगवान



कुछ लोग कहते हैं कि राम भगवान नहीं थे, वे तो राजा थे। कुछ का मानना है कि वे एक का‍‍ल्पनिक पात्र हैं। वे कभी हुए ही नहीं। वर्तमान काल में राम की आलोचना करने वाले कई लोग मिल जाएँगे। राम के खिलाफ तर्क जुटाकर कई पुस्तकें लिखी गई हैं। इन पुस्तक लिखने वालों में मुस्लिम इतिहासकारों ,वामपंथी विचारधारा और धर्मांतरित लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया है। तर्क से सही को गलत और गलत को सही सिद्ध किया जा सकता है। तर्क की बस यही ताकत है। तर्क वेश्याओं की तरह होते हैं।

उनकी आलोचना स्वागतयोग्य है। जो व्यक्ति हर काल में जिंदा रहे या जिससे लोगों को खतरा महसूस होता है, आलोचना उसी की ही होती है। मृत लोगों की आलोचना नहीं होती। जिस व्यक्ति की आलोचना नहीं होती वे इतिहास में खो जाते हैं।

आलोचकों के कारण राम पौराणिक थे या ऐतिहासिक इस पर शोध हुए हैं और हो रहे हैं। सर्वप्रथम फादर कामिल बुल्के ने राम की प्रामाणिकता पर शोध किया। उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण से जुड़े करीब 300 रूपों की पहचान की।

राम के बारे में एक दूसरा शोध चेन्नई की एक गैरसरकारी संस्था भारत ज्ञान द्वारा पिछले छह वर्षो में किया गया है। उनके अनुसार अगली 10 जनवरी को राम के जन्म के पूरे 7122 वर्ष हो जाएँगे। उनका मानना है कि राम एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। राम का जन्म 5114 ईस्वी पूर्व हुआ था। वाल्मीकि रामायण में लिखी गई नक्षत्रों की स्थिति को 'प्ले‍नेटेरियम' नामक सॉफ्टवेयर से गणना की गई तो उक्त तारीख का पता चला। यह एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जो आगामी सूर्य और चंद्र ग्रहण की भविष्यवाणी कर सकता है।

मुंबई में अनेक वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, व्यवसाय जगत की हस्तियों के समक्ष इस शोध को प्रस्तुत किया गया। और इस शोध संबंधित तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए इसके संस्थापक ट्रस्टी डीके हरी ने एक समारोह में बताया था कि इस शोध में वाल्मीकि रामायण को मूल आधार मानते हुए अनेक वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, ज्योतिषीय और पुरातात्विक तथ्यों की मदद ली गई है। इस समारोह का आयोजन भारत ज्ञान ने आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर की संस्था आर्ट ऑफ लिविंग के साथ मिलकर किया था।

कुछ वर्ष पूर्व वाराणसी स्थित श्रीमद् आद्य जगदगुरु शंकराचार्य शोध संस्थान के संस्थापक स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती ने भी अनेक संस्कृत ग्रंथों के आधार पर राम और कृष्ण की ऐतिहासिकता को स्थापित करने का कार्य किया था।

इस के अलावा नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोकसंस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम जिंदा है। दुनिया भर में बिखरे शिलालेख, भित्ति चित्र, सिक्के, रामसेतु, अन्य पुरातात्विक अवशेष, प्राचीन भाषाओं के ग्रंथ आदि से राम के होने की पुष्टि होती है।

आलोचकों को चाहिए कि वे इस तरह और इस तरह के तमाम अन्य शोधों की भी आलोचना करें और इन पर भी सवाल उठाएँ, तभी नए-नए शोधों को प्रोत्साहन मिलेगा। एक दिन सारी आलोचनाएँ ध्वस्त हो जाएँगी। क्यों? क्योंकि द्वेषपूर्ण आलोचनाएँ लचर-पचर ही होती हैं। दूसरे के धर्म की प्रतिष्ठा गिराकर स्वयं के धर्म को स्थापित करने के उद्देश्य से की गई आलोचनाएँ सत्य के विरुद्ध ही मानी जाती हैं।

कहते हैं कि किसी देश, धर्म और संस्कृति को खत्म करना है तो उसके इतिहास पर सवाल खड़े करो, फिर तर्क द्वारा इतिहास को भ्रमित करो- बस तुम्हारा काम खत्म। फिर उसे खत्म करने का काम तो उस देश, धर्म और संस्कृति के लोग खुद ही कर देंगे।

अंग्रेज इस देश और यहाँ के धर्म और इतिहास को इस कदर भ्रमित कर चले गए कि अब उनके कार्य की कमान धर्मांतरण कर चुके लोगों, राजनीतिज्ञों व कट्टरपंथियों ने सम्भाल ली है।

विखंडित करने के षड्यंत्र के पहले चरण का परिणाम यह हुआ कि हम अखंड भारत से खंड-खंड भारत हो गए। एक समाज व धर्म से अनेक जाति और धर्म के हो गए। आज का जो भारतीय उपमहाद्वीप है और वहाँ की जो राजनीति तथा समाज की दशा है वह अंग्रेजों की कूटनीति का ही परिणाम है।

जब कोई प्रशासन और सैन्य व्यवस्था, व्यक्ति या पार्टी 10 वर्षों में देश को नष्ट और भ्रष्ट करने की ताकत रखता है तो यह सोचा नहीं जाना चाहिए कि मुस्लिम आक्रंताओ और 200 साल के राज में अंग्रेजों ने क्या किया होगा? अंग्रेजों ने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन सब कुछ छीनकर।

यह सोचने वाली बात है कि हम दुनिया कि सबमें पुरानी कौम और पुराने मुल्कों में गिने जाते हैं, लेकिन इतिहास के नाम पर हमारे पास मात्र ढाई से तीन हजार वर्षों का ही इतिहास संरक्षित है। हम सिंधु घाटी की सभ्यता से ही शुरू माने जाते हैं। हमें आर्यों के बाद सीधे बुद्धकाल पर कुदा दिया जाता है। बीच की कड़ी राम और कृष्ण को किसी षड्यंत्र के तहत इतिहास की पुस्तकों में कभी शामिल ही नहीं किया गया।
 



साभार : हिंदुत्व की शक्ति, फेसबुक 

Wednesday, June 27, 2012

हिन्दुत्व से चिढ़ क्यों?

वोट की राजनीति ने हमारे समाज को बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक,साम्प्रदायिक-सेकुलर  अन्य जाति-मत-पंथ में विभाजित कर देश का जोनुकसान किया है उसकी भरपाई कैसे होगीइसका विचार किए जाने कीबजाय इस विभेद को सत्ता के लिए और भी गहराने की साजिशें हो रही हैं।जनता के बीच इस प्रकार के भ्रम निर्माण कर अपने राजनीतिक स्वार्थ साधनेकी मानो होड़ लगी है। देश का प्रधानमंत्री सेकुलर होयह कहने का अर्थ क्याहैसंविधान निर्माताओं ने तो प्रधानमंत्री पद की यह 'विशिष्ट पहचानबनानेका कोई चिंतन नहीं कियाक्योंकि शायद उनका मानना रहा होगा कि भारतजिन सनातन मूल्योंधर्म-संस्कृति का पोषक रहा हैवहां तो सर्वसमावेशीऔर सहअस्तित्व का भाव ही हमारे सामाजिक  राष्ट्रीय जीवन का आधारहै। इसलिए यहां मत-पंथ के आधार पर किसी प्रकार का सामाजिक विभाजनकरना उन्होंने उचित नहीं समझा। अतकेन्द्रीय शासन और उसके प्रमुख केरूप में प्रधानमंत्री का दायित्व लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए बिनाकिसी भेदभाव के देश की समस्त जनता की सुख-समृद्धि  हिफाजत कीचिंता करना है। लेकिन इसके विपरीत प्रधानमंत्री को 'सेकुलरजैसी पहचानदेने की कोशिशें हो रही हैं। सर्वपंथसमभाव तो भारत के हिन्दू चिंतन कीविशेषता है। ऐसे हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक मानना और 'सेकुलरवादकोसत्ता की राजनीति का हथियार बना लेना सुविधा की राजनीति के अलावाऔर कुछ नहीं है।

स्वाधीनता के बाद कांग्रेस की शह पर ज्यों-ज्यों राजनीति सत्ता केन्द्रित होतीगई और राष्ट्र निर्माण  समाज सेवा का भाव उसमें से समाप्त होता गया तोवोट का गणित राजनीति पर हावी हो गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमतीइंदिरा गांधी की पहल पर 42वां संविधान संशोधन करके उसमें सेकुलर यानीपंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया। लेकिन सेकुलरवाद  अल्पसंख्यकवाद का अर्थमान लिया गया मुस्लिम तुष्टीकरण और हिन्दू विरोध। वोट की राजनीतिकरते हुए इसका लाभ लेकर सत्तास्वार्थों को साधने वाली कांग्रेस की तर्ज परउसी लालसा से देश में कई दल  नेता उस राह पर चल निकले। परिणामत:हिन्दू उत्पीड़न  मुस्लिम तुष्टीकरण सत्ता की राजनीति का मंत्र बन गयाऔर इसकी होड़ में आज ये दल  नेता एक-दूसरे से आगे निकल जाने कोआतुर हैं। प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह कहते हैं कि देश के संसाधनों परपहला हक मुस्लिमों का है। यह तो घोर साम्प्रदायिक मानसिकता है कि देशके 85 प्रतिशत हिन्दुओं का हक छीनकर कथित अल्पसंख्यकों यानीमुस्लिमों को सौंप दिया जाए। क्या ऐसा 'सेकुलरप्रधानमंत्री चाहिए देश को?उड़ीसा के कंधमाल में जनजातियों की सेवा कर उनके जीवन को खुशहालबनाने में जुटे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जब चर्च के मतांतरण षड्यंत्र मेंबाधा बनते दिखे तो उनकी निर्मम हत्या कर दी गईतब प्रधानमंत्री ने उफ्‌भी नहीं की और आस्ट्रेलिया में डा.हनीफ की गिरफ्तारी भर से उनकी रातोंकी नींद उड़ जाती हैसंप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में समानांतरसत्ता की पर्याय बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा 'साम्प्रदायिक एवं लक्षितहिंसा रोकथाम विधेयकके प्रारूप में हिन्दुओं को प्रथम दृष्ट्या साम्प्रदायिकदंगों का अपराधी ठहराए जाने  मुस्लिमों को पीड़ित माने जाने का मानकतैयार किया जाता है और संप्रग सरकार उस प्रारूप को कानून बनाने पर तुलीहै.प्रमें मुलायम सिंह की पार्टी का राज आते ही केन्द्रीय धन से नएविद्यालय खोलने की योजना के तहत प्रदेश के 21 मुस्लिम बहुल जिलों में हीविद्यालय खोलने की योजनाराज्य में 10वीं पास मुस्लिम लड़कियों को आगेकी पढ़ाई के लिए 30 हजार रुतक की आर्थिक सहायता दिया जाना और.प्रके 18 प्रतिशत मुस्लिम बहुल थानों में मुस्लिम पुलिस अधिकारीनियुक्त किए जाने जैसा मुस्लिम एजेंडा लागू करने की कोशिशें क्या हैंक्यायही सेकुलरवाद है?


वास्तव में यह तो हिन्दू उत्पीड़न की साम्प्रदायिक राजनीति है जो कांग्रेस व उसकी मानसिकता में से जन्मे दलों व नेताओं की सोच का अहम हिस्सा बन चुकी है। राजनीति में मुस्लिमपरस्ती दिखाकर उनके थोक वोट पाने की चाह में ही ये दल व नेता आज जब चाहे हिन्दुत्व को कोसते व हिन्दू हित की बातों को साम्प्रदायिक करार देते नजर आते हैं। वे भूल जाते हैं कि भारत में 85 प्रतिशत हिन्दू होने के कारण ही उनका तथाकथित सेकुलरवाद और लोकतंत्र जैसी अवधारणाएं जीवित हैं, अन्यथा जो धरती देश विभाजन से पहले भारत ही कहलाती थी, वहां पाकिस्तान के रूप में एक मजहबी राज्य बन जाने के बाद न सेकुलरवाद रहा, न लोकतंत्र। हिन्दुओं का उत्पीड़न कर 'सेकुलर राज' स्थापित किए जाने को तत्पर इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि भारत में देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं के हितों की चिंता करने वाली सरकार और प्रधानमंत्री क्यों नहीं होना चाहिए। ऐसा शासन और ऐसा प्रधानमंत्री निश्चय ही हिन्दू जीवन मूल्यों, संस्कारों व आदर्शों से प्रेरित होकर 'सर्वेषां अविरोधेन्' के भाव के साथ सभी मत-पंथों के हित चिंतन व उत्कर्ष के लिए कार्य करेगा। छत्रपति शिवाजी का हिंदवी स्वराज इसका उदाहरण है। फिर इन सेकुलरों को हिन्दुत्व से इतनी चिढ़ क्यों है? क्या केवल वोट व सत्ता की खातिर?


साभार : पांचजन्य